भारत और पाकिस्तान के बीच जल कूटनीति
जल संकट की राजनीति
भारत और पाकिस्तान दक्षिण एशिया के दो ज्वलंत देश है जो हमेशा संघर्ष के लिए तलवार की धार तेज किये रहता है. एक तरफ जहाँ भारत शांति के लिए कदम बढ़ाने की कोशिश करता है वहीँ पाकिस्तान उन राहों में काँटे बो कर शांति मार्ग को ही बंद कर देता है. भारत और पाकिस्तान आज़ादी (1947) के बाद से ही लगातार संघर्ष कर रहे हैं कुछ संघर्ष युद्ध में भी तब्दील हो चुका है. सन 1948, 1965, 1971, 1999 के युद्ध में पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी है लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तान भारत से युद्ध करने में बाज नहीं आता है, आये दिन सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ पाकिस्तान की गंदी नीति के कारण झड़प होते रहता है. पाकिस्तान अपने पोषक चीन के इशारे पर भारत के साथ संघर्ष करते रहता है, लेकिन पाकिस्तान हमेशा इस बात से मुकर जाता है की कोई उन्हें संरक्षण दे रहा है या वह पहले भारत के साथ युद्ध करता है, लेकिन सर्वविदित है की पाकिस्तान आतंकवाद का पोषक ही नहीं बल्कि जन्मदाता भी है, चीन पर्दे के पीछे से नीति बनाता है और पाकिस्तान छुप कर युद्ध करता है. पाकिस्तान, भारत के साथ सीधा युद्ध में हार की वजह से आतंकवाद का सहारा लेकर भारत से युद्ध जितना चाहता है अपने इसी मनसूबे के तहत 2016 में उरी में भारतीय सैनिकों पर हमला किया था जिसमे 23 भारतीय सैनिक शहीद हुआ था फिर पुलवामा हमला, इस तरह पाकिस्तान, भारत शान्ति बहाल करने की माँग करता है और दूसरी तरफ से युद्ध को बढ़ावा देता है. पाकिस्तान ने अपने नाकाम मंसूबों को लेकर 18 सितम्बर 1916 को जम्मू-कश्मीर (वर्तमान संघ राज्य क्षेत्र कश्मीर और लद्धाख ) के उरी आक्रमण के बाद भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था की “ खून और पानी साथ-साथ नहीं बह सकता है”, तभी से भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते पर समीक्षा करने की बात होने लगा. पुलवामा हमले के बाद तो ऐसा लगने लगा की अब सिंधु जल समझौता अप्रभावी हो जायेगा, लेकिन भारत के सकारात्मक पहल के कारण सिंधु जल समझौते पर चर्चा नहीं किया गया. भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का लंबा इतिहास रहा है लेकिन इसके बावजूद 19 सितम्बर 1960 में किया गया सिंधु जल समझौता दोनों देशों के बीच सहयोग का मिसाल बना हुआ है इसका कारण यह है की भारत, दक्षिण एशिया में शांति बहाल करना चाहता है और अनावश्यक युद्ध को टालने की कोशिश करता है.
सिन्धु जल समझौता
60 वर्ष पहले पाकिस्तान के कराची में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ सिन्धु जल समझौता आजतक बना हुआ हुआ है जो दोनों देशों को सहयोग का पाठ पढ़ा रहा है. आज़ादी के समय हुए युद्ध के दौरान भारत ने 1 अप्रैल 1948 को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहने वाले नदी के पानी को रोक दिया था फलस्वरूप पाकिस्तान में सूखे की स्थिति आ गयी थी. पाकिस्तान इस बात से भलीभांति सचेत हो गया की भारत युद्ध के समय जल को हथियार के रूप में प्रयोग कर सकता है इसलिए उसने विश्व बैंक में मदद की सिफारिश कर दिया. विश्व बैंक की मध्यस्थता के फलस्वरूप भारत और पाकिस्तान के बिच सिन्धु जल समझौता को 1960 में कार्यरूप दिया गया. इस तरह लम्बे संघर्ष के फलस्वरूप 19 सितम्बर 1960 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु और पाकिस्तान के फ़ील्ड मार्शल अयूब खान के बीच कराची में सिन्धु जल समझौता पर हस्ताक्षर हुआ जिसके तहत तीन पूर्वी नदी- रावी, व्यास और सतलज नदी का जल भारत के हिस्से में आया, जिसे भारत अपने सुविधा अनुसार प्रयोग में ला सकता है तथा तीन पश्चिमी नदी- सिन्धु, झेलम और चिनाब, पाकिस्तान के हिस्से में गया, जिसके 20 प्रतिशत जल को भारत प्रयोग में ला सकता है. भारत इन नदियों पर जलविधुत परियोजना का निर्माण कर सकता है लेकिन परियोजना ‘रन ऑफ़ रिवर’ होगा क्योंकि इन नदियों के बहाव को भारत रोक नहीं सकता है इसलिए भारत को सिन्धु और उसके सहायक नदियों के कारण से एक विस्तृत भूमि की सिंचाई व्यवस्था प्रभावित हो रहा है यही कारण है की भारत को सिन्धु जल समझौते पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता आ पड़ी है. सिन्धु और उसकी सहायक नदियों पर पाकिस्तान के दो-तिहाई हिस्से में 2.6 करोड़ एकड़ ज़मीन की सिंचाई निर्भर है, सिन्धु नदी बेसिन लगभग 11 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ क्षेत्र है जिसके जल पर भारत और पाकिस्तान दोनों निर्भर है, यही कारण है की भारत और पाकिस्तान के बीच आजतक कभी जल को लेकर युद्ध नहीं हुआ है क्योंकि जब भी जल कूटनीति की बात आती है तो पाकिस्तान विराम की स्थिति में आ जाता है और विश्व बैंक के पास मदद के लिए पहुँच जाता है. भारत, विश्व बैंक से वर्तमान में पाकिस्तान के कारण विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहता है क्योंकि भारत युद्ध का नहीं बल्कि शान्ति का पक्षधर है परन्तु अब वक्त है भारत को अपनी जल नीति में सुधार करने की क्योंकि एक बड़ी जनसंख्या जल संकट से गुज़र रहा है. पाकिस्तान जैसे आतंकित देश के हित के बारे में सोचना वर्तमान परिस्थिति के विपरीत है.
भारत की जल कूटनीति
कोई भी समझौता देश से बड़ा नहीं होता है अगर कोई देश की एकता और अखंडता को चुनौती देता है तो उससे किये हुए सभी समझौते अप्रभावी हो जाते हैं, इसी पर Water: Asia’s New Battleground के लेखक ब्रह्मा चेल्लानी कहते हैं की “भारत वियना समझौते के लॉ ऑफ़ ट्रिटीज़ के धारा 62 के अनुसार यह कहकर संधि को तोड़ सकता है की पाकिस्तान चरमपंथी गुटों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है”. बीजेपी समर्थित जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती का बयान था की “सिन्धु जल समझौते के कारण जम्मू – कश्मीर (वर्तमान संघ क्षेत्र लद्धाख और कश्मीर) को 20 लाख करोड़ का नुकसान हो रहा है”. सिन्धु जल समझौते से भारत को नुकसान हो रहा है न की फायदा, पाकिस्तान, भारत के जलविधुत परियोजना रातले जल विधुत परियोजना (850 मेगावाट), किशनगंगा जल परियोजना (330 मेगावाट), पाकल जलविधुत परियोजना (1000 मेगावाट), लोअर कालनई (48 मेगावाट) तथा मियार जलविधुत परियोजना (120 मेगावाट) पर आपत्ति जता रहा है की भारत, पाकिस्तान के पानी को रोक कर अपना हित साध रहा है. तुलबुल परियोजना के विकास को लेकर पाकिस्तान विश्व बैंक के समक्ष राग अलाप कर चुका है की भारत इस परियोजना से पाकिस्तान को मिलने वाला पानी रोक कर पाकिस्तान को सूखे के हालात में ला सकता है.
भारत जल संकट का दंश झेल रहा है, भारत में शिमला, लातूर, दिल्ली पानी के संकट से त्रस्त है जल की बढ़ती मांग और जलवायु परिवर्तन के कारण घटता जल स्तर भारत के लिए चिंता का विषय है इसलिए भारत को नदी जल स्तर के प्रबंधन पर नए सिरे से विचार करने की जरुरत है. उचित जल प्रबंधन ही भारत को सूखे तथा जल संकट से उबार सकता है. जल संकट को लेकर पाकिस्तान की नीति उग्र हो जाता है इसलिए जब भी भारत सिन्धु जल समझौता की बात करता है पाकिस्तान विश्व बैंक या संयुक्त राष्ट्र की और अपना रुख कर लेता है इससे स्पष्ट होता है की पाकिस्तान जल को लेकर कितना सजग है, भारत को भी इस दिशा की और चिंता करने की जरुरत है. पाकिस्तान लगातार भारत के खिलाफ संघर्ष कर रहा है और भारत के साथ किये हुए हर समझौता (शिमला समझौता, ताशकंद समझौता, समझौता एक्सप्रेस) का नजर अंदाज़ किया है, ऐसे में सिन्धु समझौता को बरक़रार रखना, घर के अनाज में दीमक लगने देना जैसा है. वर्तमान में भारत को सिन्धु जल समझौते पर आवश्यक कदम उठाने की जरुरत है, अपने ही राज्य के संसाधनों का दोहन करके किसी अन्य देश के विकास के बारे में सोचना 21वीं सदी के राजनीति के खिलाफ है, खासकर एक ऐसे देश के हित के बारे में सोचना जो सबसे बड़ा और स्थायी दुश्मन है.