पूर्वोत्तर भारत के जलविधुत परियोजना पर चीन की पैनी नजर

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तिब्बत में चीन की जल भंडार

तिब्बत, 1950 से चीन के कब्ज़े में है कारण यह है की तिब्बत, चीन के लिए कई मामलों में महत्वपूर्ण है. प्रथम, भारत, नेपाल, भूटान की सीमा चीन से नहीं लगती थी परन्तु तिब्बत को अधिकार में लेने से इन देशों की सीमा अब सीधे चीन से लगने लगा है. दूसरा, तिब्बत, विश्व में शुद्ध जल भंडार में प्रथम स्थान रखता है तथा भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम स्थल तिब्बत है यहाँ तक की गंगा की दो सबसे बड़ी सहायक नदियों का उद्गम स्थल भी तिब्बत है, इस लिहाज से चीन, तिब्बत को दूरगामी फायदे के लिए अपने अधिकार क्षेत्र में ले रखा है, परन्तु भारत द्वारा यह स्वीकार कर लेना राजनीतिक भूल था की तिब्बत, चीन का भू-भाग है. तिब्बत, जो बंजर क्षेत्र था वो अब भारत और चीन के बीच राजनीतिक सेतु बनकर उभरा है. चीन में गहराते जल संकट को तिब्बत उबार रहा है इसलिए चीन की मंशा है की तिब्बत के संपूर्ण जल का उपभोग चीन करे, इसलिए ब्रह्मपुत्र नदी को तिब्बत के सूखे ग्रस्त क्षेत्र की ओर मोड़ने का प्रयत्न में लगा हुआ है. भारत और चीन दोनों देश जल संकट से गुज़र रहा है, चीन के 816 शहरों में से 110 शहरों में भीषण जल संकट है, चीन के इस जल संकट को तिब्बत पूरा कर रहा है इसलिए तिब्बत, चीन के लिए महत्वपूर्ण है. तिब्बत से यारलंग त्सांगपो नदी जो भारत में ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है पर चीन द्वारा 1000 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाये जाने के कयास से भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र जल विवाद गहराता जा रहा है, ऐसा माना जा रहा है की चीन, ब्रह्मपुत्र नदी को मोड़ने की दिशा में कार्य कर रहा है ताकि भारत के खिलाफ ब्रह्मपुत्र नदी को हथियार के रूप में उपयोग किया जा सके, अगर ऐसा होता है तो भारत के लिए चिंता का सबब है क्योंकि पूर्वोत्तर भारत की सिंचाई, नहर और जलविधुत परियोजना ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह पर निर्भर करता है. भारत को चीन के साथ द्विपक्षीय आधार पर नदी जल विवाद को सुलझाना होगा क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था और पूर्वोत्तर के विकास के लिए ब्रह्मपुत्र नदी की जल आवश्यक है. चीन, अरुणाचल प्रदेश पर अपने अधिकार का दावा करता है तथा वह इसे ‘दक्षिणी तिब्बत’ के नाम से पुकारता है, कारण यह है की अरुणाचल प्रदेश में विशाल जलविधुत का क्षमता है जिसपर चीन की नजर है, वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश में 19 जल विधुत परियोजना पर कार्य चल रहा है, अगर चीन ब्रह्मपुत्र नदी के पानी के साथ छेड़छाड़ करता है तो उसका सीधा असर अरुणाचल प्रदेश के जलविधुत परियोजना पर पड़ेगा, भारत पूर्वोत्तर को बिजली उत्पादन में आत्मनिर्भर बना रहा है लेकिन अगर जल संकट उभरकर सामने आता है तो पूर्वोत्तर के विकास में बाधा उत्पन्न होगा. ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाये जाने से असम के सिंचाई, नहर और मछली उत्पादन पर गहरा संकट उत्पन्न हो जायेगा इसलिए नदी जल विवाद को सुलझाना भारत के लिए नितांत आवश्यक है. 

फोटो: द हिन्दू

भारत और चीन में जलविधुत परियोजना की बढ़ती जरुरत 

उरी अटैक के बाद भारत ने सिंधु जल संधि पर समीक्षा की योजना बनायीं तो पाकिस्तान ने इशारा किया की वह चीन के जरिये ब्रह्मपुत्र नदी के पानी को रुकवा देगा, चीन, ब्रह्मपुत्र नदी को भारत के लिए हथियार के रूप में प्रयोग कर रहा है यही कारण है की चीन ने ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी जियाबुक नदी के पानी को रोक दिया, ब्रह्मपुत्र नदी पूर्वोत्तर भारत की रीढ़ की हड्डी है दरअसल असम, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में ब्रह्मपुत्र नदी से जलविधुत परियोजना का विकास किया जाता है तथा सिंचाई और नहर के लिए भी ब्रह्मपुत्र नदी आवश्यक है ग़ौरतलब है की ब्रह्मपुत्र नदी 1625 किलोमीटर तिब्बत में, भारत में 918 किलोमीटर तथा 363 किलोमीटर बांग्लादेश में बहते हुए गंगा में मिल जाती है. चीन अगर ब्रह्मपुत्र नदी या इसके सहायक नदियों पर बांध बनाता है तो भारत और बांग्लादेश दोनों को जल संकट झेलना पड़ेगा तथा अरुणाचल प्रदेश में चल रहे जल विधुत परियोजना पूरी तरह से प्रभावित होगा. पूर्वोत्तर भारत ब्रह्मपुत्र नदी के डाउनस्ट्रीम क्षेत्र है जिसके कारण मानसून में बाढ़ और गर्मी में सूखे के प्रभाव से ग्रसित रहता है, भारत और चीन के 2002 में हुए समझौते के तहत मई से अक्टूबर तक चीन भारत को ब्रह्मपुत्र के जल प्रवाह के आंकड़े देगा लेकिन चीन ने समझौते का उल्लंघन किया है इससे असम और अरुणाचल प्रदेश बाढ़ से प्रभावित रहता है. भारत और चीन दोनों एशिया के सबसे बड़े आबादी वाला देश है इसलिए बिजली की खपत भी अधिक है, ब्रह्मपुत्र नदी हिमालय के ढलानों से गुजरती है जिसमें जलविधुत उत्पादन की क्षमता अधिक है इसलिए दोनों देशों की बिजली क्षमता के लिए ब्रह्मपुत्र नदी आवश्यक है. पूर्वोत्तर भारत में 58971 मेगावाट जलविधुत क्षमता है जिसे भारत और चीन खोना नहीं चाहता है इसलिए कूटनीतिक रूप से ब्रह्मपुत्र विवाद गहराता जा रहा है.

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पूर्वोत्तर की जल नीति और भारत-चीन राजनीति

पूर्वोत्तर भारत को “भारत का पॉवर हाउस’ के रूप में जाना जाता है जहाँ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध है जिसमे जलविधुत परियोजना का प्रमुख स्थान है, इसलिए पूर्वोत्तर की जल नीति दोनों देशों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है. 21वीं सदी में जल संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरता जा रहा है, लम्बे समय से पूर्वोत्तर भारत के अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपनी खोखली दावा पेश करता आ रहा है. पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में जल संकट की पृष्ठभूमि चीन में तैयार हो रहा है इसलिए भारत और बांग्लादेश को मिलकर अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर चीन की जल नीति पर निंदा करना होगा, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के 1997 जल संधि में प्रावधान है की जब कोई नदी दो या दो राज्यों से अधिक में बहती है तो इसके प्रवाह से संबंधित सभी देशों का समान अधिकार होगा, परन्तु इस संधि पर भारत और चीन दोनों ने हस्ताक्षर नहीं किया है, इसलिए ब्रह्मपुत्रा नदी के जल प्रवाह आंकड़ें साझा करने के लिए चीन बाध्य नहीं है. भारत अगर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चीन की इस जालसाज़ी को लाता है तो चीन की कूटनीतिक चल विफल हो सकता है क्योंकि चीन की जालसाज़ी से बांग्लादेश को भी नुकसान होगा और जल विवाद को अगर दोनों देश सयुंक्त राष्ट्र के पटल पर रखता है तो चीन, जल विवाद से बचना चाहेगा. 2013 में चीन और भारत के बीच द्विपक्षीय समझौता हुआ था की चीन ब्रह्मपुत्र नदी के जल प्रवाह के आंकड़ा को साझा करेगा, परन्तु चीन इस संधि का उल्लंघन कई बार कर चुका है.

पूर्वोत्तर राज्यों में 58971 मेगावाट की बिजली उत्पादन क्षमता है जो पूरे देश का 40 प्रतिशत है जिसमें से 2020 तक 1727 मेगावाट (2.92 प्रतिशत) का उत्पादन किया जा रहा है, वर्तमान में 2300 मेगावाट जल विधुत परियोजना का निर्माण कार्य चल रहा है. पूर्वोत्तर में विधुत उर्जा का विशाल भंडार सुरक्षित है और प्रति व्यक्ति खपत भी निम्न है, इसलिए भारत अगर पूर्वोत्तर में विधुत उत्पादन करता है तो पूर्वोत्तर भारत के साथ-साथ पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, और असम में बिजली संकट समाप्त हो जायेगा, इसलिए भारत और चीन के बीच जल समझौता नितांत आवश्यक है क्योंकि इसमें भारत और चीन दोनों को फायदा है एक तरफ जहाँ भारत को पूर्वोत्तर के विकास के लिए जल की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध हो जायेगा, वहीँ चीन को भारत और बांग्लादेश के साथ संबंधों में मधुरता आएगी, साथ ही भारत जल विवाद को अन्य देशों के साथ साझा कर सकता है जिसमें सबसे अधिक फायदा पाकिस्तान और बांग्लादेश को होगा, जिससे एशिया के देशों में विश्वास निर्माण बहाल होगा और आर्थिक विकास में बढ़ोतरी होगा. भारत और चीन के बीच संघर्ष से व्यापार में छति हो रहा है इसलिए ब्रह्मपुत्र नदी को राजनीतिक सेतु न बनाकर सहयोग की दिशा में कार्य करना होगा.

अभी हाल ही में भारत ने अरुणाचल प्रदेश के देबांग में 1600 करोड़ की लागत से 2880 मेगावाट बिजली उत्पादन की मंजूरी दिया है. भारत अगर जलविधुत परियोजना पर कार्य सुचारु रूप से चलाना चाहता है तो चीन के साथ जल विवाद को सुलझाना पड़ेगा तभी पूर्वोत्तर भारत का विकास संभव होगा. चीन, दक्षिणी-पूर्वी तिब्बती पठार जो सुखा ग्रस्त है उसे विकसित करने के लिए ब्रह्मपुत्र के पानी को मोड़ने का प्रयास कर रहा है अगर चीन इस मनसूबे में सफल हो जाता है तो वह अरुणाचल प्रदेश को अपने अधिकार में लेने के दावे को और अधिक मजबूत करने की कोशिश करेगा तथा भारत के लिए पूर्वोत्तर को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास में कठिनाई उत्पन्न होगा.

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