वो हाशिये से भी उठकर अब बाहर जा रहे हैं!

अपने घरों को लौटते प्रवासी मजदूर

किसान के घर का अन्न से भर जाना और मजदूर को रोज काम मिलना, ये किसी भी काल में संभावित होना एक सपने सरीखा है| वैज्ञानिक दूरबीन एवं सहानुभूति के लेंस का समागम वर्तमान स्थिति के परिपक्व आकलन के लिए जरुरी है| वर्तमान समय के ब्रह्माण्ड को देखने के लिए वैज्ञानिक दूरबीन में सहानुभूति के लेंस का होना एक वास्तविक चित्र उकेरेगा, जो कि कृत्रिम बादलों से रहित होगा| दोनों पहलू इस वक्त की न केवल जरुरत है, बल्कि उचित भी हैं| किसी भी एक पहलू को पृथक कर स्थिति को देखना या तो हमें पूर्ण रूप से अमानवीय बना देगा और सिर्फ मास्क, सोशल डिसटेनसिंग, क्वारंटाइन और एक हाथ से बढती हुई छ: फुट की दूरी में उलझा देगा, या फिर हमें पूर्ण रूप से विज्ञान के अभाव में परेशानियों में धकेल देगा|

वर्तमान समय में कोरोना वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दुसरे व्यक्ति में फैल रहा है, और यह व्यक्ति कोई भी हो सकता है, अमीर वर्ग या फिर गरीब वर्ग का| आज न्यूज़ चैनल, अख़बार और इन्टरनेट कोरोना वायरस से सम्बंधित ज्ञान से भरपूर हैं, और इनके मुताबिक इस संक्रमण के बेकाबू रूप में आने का मुख्य कारण बड़ी संख्या में लोगों का एकत्रित होना है जिसका परिणाम कोरोना का और फैलना है| पर यहाँ तक यह बात कैसे पहुची? क्यों लोग एकत्रित हो रहे हैं? क्यों वे बार-बार सामाजिक दूरी की अवधारणा का मखौल उड़ा रहे हैं? क्या उनकी शिक्षा में कमी है? या फिर उन्हें अपने घर की याद आ रही है, उनमे भय व्याप्त है या वो विवश है सामाजिक, आर्थिक एवं स्वास्थ्य के आपातकाल के इस दौर में| क्या ये समेकित रूप से एकांगी कर्ता भय नहीं है?

पर इस भीड़ को जीवन की इस अमानवीय-मानवीय गरिमा रहित जद्दोज़हद में फ़साने के लिए जिम्मेदार कौन है? भीड़ का एकत्रित होना, संक्रमण की चपेट में आना और संक्रमण का उन लोगों तक पहुचना जो अपने घरों में आराम से छ: फुट की दूरी का पालन करते हुए कोरोना एकांतवास काट रहे हैं| इससे एक बात पक्के रूप में तय हो जाती है कि संक्रमण किसी भी वर्ग, संप्रदाय और जाति के व्यक्ति को हो सकता है और वायरस किसी भी तरह के खंडीय विभाजन के पक्ष में नहीं है| ऐसा होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वायरस जीवित होते हुए भी तटस्थ राय रखता है समाज के हर वर्ग के लिए| इसका यह मतलब निकल कर आता है कि हर जान की कीमत समान है क्योंकि यह सभी को समान रूप से प्रभावित कर रहा है| यद्यपि कुछ जानें पैरों को सिकोड़ कर, अपने पेट को दबा कर हांफते हुए दान के कैमरे के फ्रेम से बचते हुए उन गलियों में लाचार बैठे हैं जहाँ सोशल डिसटेनसिंग और छ: फुट की दूरी दोनों कपोल कल्पना नज़र आती हैं| हम सब इस बदलती सामाजिक संरचना, जो कोरोना वायरस के संक्रमण की देन है, में इस वक़्त इस बात की अनुभूति कर पाएं कि हर जान का मूल्य सामान है| और क्या इस बात की अनुभूति की देरी ही इन असंख्य जानों के गलियों, चौबारों एवं सडकों में भूख-प्यास से व्याप्त भीड़ का हिस्सा बन जाने की वजह है?

फ़ोटो: इंडिया टुडे

यह भीड़ सडकों पर है और घर जाने की जिद कर रही है| परन्तु इस भीड़ को वहां पहुचाने के लिए कौन ज़िम्मेदार है? गावों से शहरों को पलायन के लिए उत्तरदायी घटक जैसे कृषि योग्य भूमि की कमी, उच्च-स्तरीय शिक्षा का अभाव, नौकरी की तलाश और मीडिया द्वारा भ्रमित करने वाला शहरी आकर्षण धकेल रहा है उस व्यक्ति को जिसका अपने गाँव में एक नाम था, आम होने के बावजूद एक विशिष्टता थी| वह व्यक्ति अब अपरिचित शहरी भीड़ का एक हिस्सा बन चुका है| विचार करने योग्य बात यह है की जब वह व्यक्ति शहरों की ओर पलायन करने के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं, तो फिर आज उसका सडकों पे आना उसकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी कैसे हो सकती है? जमा होती भीड़ और उनकी शहरों को छोड़ने की आतुरता इस बात की ओर संकेत करती है कि पलायन के इतने दिनों बाद भी जिन शहरों को वे अपना समझ रहे थे, उन्ही शहरों में उनका अस्तित्व आज खतरे में है| गाँधी के ग्राम स्वराज से दूर और शहरों के ढाँचेगत विकास जिसमे भावनात्मक पलस्तर की काफी कमी है वहाँ आज वह मजदूर सच्चाई और विश्वास के बीच के संघर्ष में लगभग नग्न है| विपत्ति के इस काल में जनसमूह के एकत्रित होने को कोरोना संक्रमण की बढती विपत्ति के लिए दोषी माना जा रहा है, तथापि वह जनसमूह स्वयं विपत्ति का शिकार है| यह बात जान लेना बहुत जरुरी है कि हम क्यों इन्हें दोषी मान रहे हैं, जो वास्तविकता से परे है, क्योंकि हम त्वरित विपत्ति को ही समग्र मान रहे हैं| लेकिन कोई भी सामाजिक घटना दूसरी सामाजिक घटना के विश्लेषण के बिना अधूरी है, वैज्ञानिक भाषा में से इसे ‘कॉज एंड इफ़ेक्ट’ सम्बन्ध कहते हैं| अपनी मौलिक जरूरतों की तलाश में सडकों पर निकले इस जनसमूह के दोष देने की बजाय उन सभी कारकों का विश्लेषण करना जो आज उन्हें इस परिस्थिति में लाये हैं, न्यायसंगत एवं तर्कसंगत होगा| जिस विकास ने इस भीड़ को गावों से दूर किया इस विश्वास के चलते कि, यह कंक्रीट से भरा हुआ विकास इनकी तमाम समस्याओं का हल है वही विकास अमेरिका, स्पेन और इटली जैसे देशों को इस संकट से उबारने एवं जीवन बचाने में अक्षम है| इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे विकास का मॉडल या तो किसी एक पहलू में कम था या फिर वह विकास नहीं, छद्म-विकास था|

आधुनिकता की होड़ में हम इस कदर दौड़ रहे हैं की हमने विकास का सही अर्थ दरकिनार कर दिया है और आज हम अपनी जड़ों और संस्कृति से कोसों दूर आ गए हैं| इतने दूर और अंधकार में कि जहाँ मानवीयता की मशाल तो है मगर उसे पकड़ने वाले हाथ विकास का डमरू पकडे हुए हैं, जो कि कोरोना काल से पहले सुरीला बज रहा था| यह हाथ और मस्तिष्क जो पहले से ही विकास, आधुनिकता और एक आयामी सोच के चलते भेद्य हैं उन्हें जब रोटी, भयरहित सोच और अच्छे स्वास्थ्य का अभाव होगा तो वह कितने कमजोर हो जायेंगे यह सोच पाना भी मुश्किल है|

फ़ोटो: रॉयटर्स

मानवीयता की रेखा विभाजन नहीं मेल कराती है, बताती है कि आस पास का हर व्यक्ति जो साँस ले रहा है, मानव है और इस मानव की परम भावना सिर्फ मानवीयता होनी चाहिए| यही बात हमारी संस्कृति हमें समझाती है जिसके अनुसार समाज में प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है| हमारे समाज का ढाँचा ऐसे ही अनगिनत व्यक्तियों से बना है, और प्रत्येक व्यक्ति हर स्तर पर अपना योगदान इस सम्पूर्ण ढांचे को सुचारू एवं सुदृढ़ रखने हेतु प्रदान करता है चाहे वह प्रत्यक्ष रूप में हो या परोक्ष| अतः उसी समाज का यह दायित्व बन जाता है कि वह अपनी संरचना की प्रत्येक इकाई के अस्तित्व एवं उसके सर्वंगीर्ण विकास को सुनिश्चित करने का संकल्प करे| इसी क्रम में हमें अपने सामाजिक दायित्वों का पालन करते हुए एक व्यवस्था बनाने की जरुरत है जहाँ शुरुआती दौर से ही बिना किसी असमानता के  सभी के सतत अस्तित्व को साथ लेकर आगे बढ़ें ताकि भविष्य में ऐसा न हो कि विपत्ति के समय ही हमें अपनी सामाजिक खामियों का अहसास हो|

उसके पास आभाव थे जिनके चलते वह शहर आया, उसने सपनों की झाँकी लगायी, मजदूर मंडी में उसके श्रम को ख़रीदा गया, वह विस्थापितों सा बड़ी बनती इमारतों के नीचे और शहर के बाहर काली पन्नी लगाये कच्चे मकानों में रोज़ी-रोटी की संभावनाओं को जीवित रखने में संलग्न था| इस प्रक्रिया में वह शिक्षा और स्वच्छता से दूर रहा, इमारतें बनती रही, श्रम बिकता रहा, सिर्फ जीवन निर्वाह करते-करते वह अपने जैसे और मजदूरों की संतति उपजाता रहा| इन सबके पास काफी कुछ नहीं था, हाशिये पर भीड़ होना लाजमी था| महामारी के इस वक़्त जब आर्थिक गतिविधियाँ हाशिये पर आ गयी हैं, तब उसके पन्नी लगे घर में चूल्हा नहीं जल रहा है| शाब्दिक अर्थ में बुझे हुए चूल्हे के ऊपर ये लगी काली पन्नियाँ कफ़न सी लगती हैं| वह अब हाशिये से उठने वाला है, ख़त्म होने वाला है|

डॉ मयंक तोमर

डॉ मयंक तोमर एमिटी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, एमिटी यूनिवर्सिटी नोएडा, में समाजशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं

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1 Response

  1. Naval rajak says:

    Very nice sir
    But you should have try to more deep. Because whatever you told about Poor’s or labours. They are more suffering.
    And you must write about farmers.
    Thanks

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